Vipra Vidhit Pujan Samagri
Getting Pure Puja essentials now easy
BEST QUALITY ASSURED
"Quality is our Priority"
Get in Delhi here.....
Pinki Singhania
Mob : 8860846197

भगवान श्रीकृष्ण पर लगा चोरी का इल्ज़ाम

चतुर्थी का चाँद देखने पर लगा कलंक

द्वारकाधीश भगवान श्रीकृष्ण के राज्य में सत्राजित नामक महाबलशाली और धनवान व्यक्ति रहता था ! उसने भगवान सूर्य को प्रसन्न करके अद्भुत स्यमन्तक मणि प्राप्त की थी ! वह मणि सत्राजित को प्रतिदिन आठ भरी सोना प्रदान करती थी !

सत्राजित उस मणि को सदैव अपने गले में लटकाये रखता था ! एक दिन द्वारकाधीश श्रीकृष्ण ने सत्राजित के गले में वह मणि देखी तो वह उससे बोले -"क्या तुम यह अद्भुत मणि मुझे दे सकते हो ? मैं चाहता हूँ यह मणि महाराजा उग्रसेन को सौंप दी जाए ! मुझे नहीं लगता कि यह दुर्लभ मणि तुम सम्भाल कर रख पाओगे !"

सत्राजित युवा श्रीकृष्ण की लोकप्रियता से जलता था ! उसकी युवा पुत्री सत्यभामा भी श्रीकृष्ण पर मोहित थी ! अतः वह सदा श्रीकृष्ण को नीचा दिखाने तथा उन्हें लज्जित करने के अवसर की ताक में रहता था !

सत्राजित ने वह मणि अपने गले से उतार कर अपने छोटे भाई प्रसेनजित के गले में डाल दी और बोला -"इसे मेरा छोटा भाई भी अच्छी तरह सम्भाल कर रख सकता है!" उसके बाद सत्राजित वह मणि प्रसेनजित से वापस लेना भूल गया ! प्रसेनजित मणि गले में डाले हुए ही घोड़े पर सवार हो, शिकार खेलने के लिए जंगल की ओर चला गया ! जंगल में अचानक ही एक शेर ने प्रसेनजित पर आक्रमण कर उसे तथा उसके घोड़े को मार दिया ! घोड़े का कुछ माँस खाकर उसने अपनी क्षुधा शान्त की और मणि लेकर अपने निवास पर चला गया !

उसी जंगल की एक ऊंची पहाड़ी गुफा में रीछों का राजा जाम्बन्त अपने परिवार सहित रहता था ! जाम्बन्त ने रात को कहीं दूर से तेज रोशनी आती देखी तो कौतूहलवश उस स्थान पर पहुंचा, जहाँ से रोशनी आ रही थी !

वहां एक शेर के पास मणि देख जाम्बन्त को अचरज हुआ ! शेर के पास ऐसी दुर्लभ मणि का क्या काम ? वह समझ गया कि यह मणि शेर ने किसी मनुष्य को मारकर प्राप्त की है !

जाम्बन्त वह मणि उठाने के लिए आगे बढ़ा, तभी शेर ने उस पर आक्रमण कर दिया, किन्तु महाबली जाम्बन्त ने थोड़ी देर के युद्ध में ही शेर को मारकर मणि प्राप्त कर ली! मणि लेकर जाम्बन्त अपनी गुफा में चला गया।

बहुत दिन बीतने पर भी अपने भाई प्रसेनजित के घर ना लौटने से सत्राजित शंकित हो उठा ! उसे लगा - हो न हो श्रीकृष्ण ने ही मणि के लालच में उसके भाई को मार दिया है और मणि हड़प ली है ! दुखी और क्रोधित सत्राजित श्रीकृष्ण के निवास पर पहुँच जोर-जोर से चिल्लाने लगा ! उसने श्रीकृष्ण पर अपने भाई प्रसेनजित की ह्त्या करके उससे मणि छीन लेने का आरोप लगाया !

यादव समाज के बहुसंख्य लोग श्रीकृष्ण पर सन्देह करने लगे ! अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए श्रीकृष्ण अपने कुछ साथियों के साथ प्रसेनजित की खोज में जंगल की ओर निकल पड़े ! जंगल में एक स्थान पर उन्हें प्रसेनजित का मृत शरीर तथा उसके घोड़े का अधखाया शरीर दिखाई दिया, किन्तु स्यमन्तक मणि वहाँ नहीं थी ! श्रीकृष्ण ने दो यादवों को वहाँ से वापस भेज दिया, जिससे वे सत्राजित को उसके भाई प्रसेनजित की मृत्यु का समाचार दे सकें ! उसके बाद श्रीकृष्ण आस-पास का निरीक्षण करने लगे!

श्रीकृष्ण ने गौर से देखा तो वहाँ किसी शेर के पंजों के निशान दिखाई दिए ! उन पंजों के निशानों का पीछा करते हुए श्रीकृष्ण उस स्थान पर पहुँच गए, जहाँ शेर मरा पड़ा था ! किन्तु स्यमन्तक मणि वहाँ भी नहीं थी ! वहाँ श्रीकृष्ण को किसी विशालकाय रीछ के पदचिन्ह दिखाई पड़े ! उन चिन्हों का पीछा करते हुए श्रीकृष्ण उस गुफा तक पहुँच गए, जहाँ रीछराज जाम्बन्त का निवास था! उस गुफा के अन्दर से तेज प्रकाश बाहर झाँक रहा था !

श्रीकृष्ण समझ गए कि दिव्य स्यमन्तक मणि उसी गुफा में है ! उन्होंने अपने यादव मित्रों से कहा -"प्रसेनजित जैसे योद्धा को मारने वाले शेर को मार कर, मणि इस गुफा में ले जाने वाला प्राणी, कोई असीम बलशाली योद्धा होगा ! मुझे लगता है कि उसे मारकर ही मैं मणि प्राप्त कर सकूँगा ! मैं गुफा के अन्दर जा रहा हूँ ! आप सब यहीं प्रतीक्षा कीजिये ! मैं मणि लेकर ही गुफा से बाहर आऊंगा !”

श्रीकृष्ण गुफा में प्रविष्ट हो गए ! गुफा में रीछराज जाम्बन्त की युवा कन्या मणि से खेल रही थी !
श्रीकृष्ण ने उससे मणि माँगी तो वह मणि से खेलना भूल मन्त्रमुग्ध सी उन्हें देखने लगी ! श्रीकृष्ण आगे बढ़कर मणि लेना ही चाहते थे कि तभी गुफा के अन्दर से रीछराज जाम्बन्त ने सामने आकर श्रीकृष्ण का मार्ग रोक लिया और कहा -"यह मणि मेरी सम्पति है ! मुझे परास्त किये बिना तुम यह मणि नहीं पा सकते !" "ठीक है !" श्रीकृष्ण ने कहा -"मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ !"

जाम्बन्त ने श्रीकृष्ण के अस्त्र-शस्त्र देखे ! फिर पुनः कहा -"किन्तु आपको इन अस्त्र-शस्त्रों का त्याग कर मेरे साथ मल्लयुद्ध करना होगा !"(मल्लयुद्ध - बिना हथियार के पहलवानों की तरह किया जाने वाला युद्ध )

श्रीकृष्ण ने तत्काल अपने अस्त्र-शस्त्रों को त्याग दिया और जाम्बन्त को ललकारा !

गुफा के अन्दर ही श्रीकृष्ण और जाम्बन्त में भयंकर युद्ध छिड़ गया ! विशालकाय देह के रीछराज के सम्मुख श्रीकृष्ण किसी बालक के समान थे ! पर वह उछल-उछल कर जाम्बन्त पर वार करने लगे और जाम्बन्त के भयंकर वारों से अपनी रक्षा भी करते गए ! दिन-रात अनवरत युद्ध चलता रहा ! श्रीकृष्ण के सभी मित्रगण दिन-रात गुफा के बाहर खड़े उनके बाहर आने की प्रतीक्षा करते रहे ! सातवें दिन उन सबका धैर्य जवाब दे गया ! उन्होंने परस्पर परामर्श किया और स्वयं ही यह मान लिया कि अन्दर जो भी राक्षसी शक्ति रही होगी, उसने श्रीकृष्ण को मार दिया होगा ! अतः अब उनके वहां रुक कर श्रीकृष्ण की प्रतीक्षा करने का कोई अर्थ नहीं था ! वे सब वापस लौट गए!

अन्दर तब भी भयंकर युद्ध चल रहा था ! युद्ध की विशेष बात यह थी कि जाम्बन्त का एक भी प्रहार श्रीकृष्ण को छू भी नहीं पाता था, जबकि श्रीकृष्ण का प्रहार उस पर पड़ता तो उसके मुंह से निकलता -"हे राम !" और हे" राम" का उच्चारण करते ही जाम्बन्त में फिर से स्फूर्ति उत्पन्न हो जाती ! श्रीकृष्ण के प्रहार से शिथिल हो रहे शरीर में फिर से ऊर्जा का संचार हो जाता !

इक्कीस दिनों तक अनवरत युद्ध चलता रहा ! जाम्बन्त श्रीकृष्ण को हरा नहीं सका ! और "हे राम-हे राम" जपते रहने पर भी दिन-रात युद्ध करते रहने से मानसिक रूप से स्वयं को बहुत थका हुआ महसूस करने लगा था !

आखिर उसने अपने प्रभु राम का ध्यान किया और उन्हें पुकारा -"हे प्रभु ! कहाँ हो आप ? आपने तो मुझसे कहा था कि आप द्वापर युग में भी मुझे दर्शन दोगे ? मुझे दर्शन दो प्रभु और मेरी रक्षा करो !"

जाम्बन्त द्वारा श्रीराम का ध्यान धरते ही श्रीकृष्ण का मुष्टिप्रहार करने के लिए हवा में उठा हाथ नीचे झुक गया और जाम्बन्त ने आश्चर्य से देखा, उसके सामने उसके प्रभु श्रीराम ही खड़े हैं ! जाम्बन्त को तत्काल ही सत्यता का ज्ञान हुआ और वह भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में गिर गया और रोते हुए बोला -"मुझे क्षमा करें प्रभु ! मैंने आपको पहचाना नहीं !"

"तुमने कोई भूल नहीं की रीछराज !" श्रीकृष्ण बोले-"तुम अपना कर्म कर रहे थे और मैं अपना कर्म ! उठो और गले लग जाओ !"

जाम्बन्त श्रीकृष्ण के चरणों से उठ कर गले लग गया और रोते हुए बोला -"मुझे क्षमा करें प्रभु ! जिस मणि के लिए आप आये हैं, वह मैं आपको नहीं दे सकता, क्योंकि वह मणि मैंने अपनी कन्या को दे दी है और कन्या को दी गयी वस्तु वापस नहीं ली जाती! किन्तु आपसे युद्ध करने का जो पाप मैंने किया है, उसके प्रायश्चित के रूप में मैं अपनी कन्या दानस्वरूप आपको देना चाहता हूँ ! कृपया मेरी पुत्री जाम्बन्ती को अपनी पत्नी स्वीकार करें !"
भगवान श्रीकृष्ण ने जाम्बन्त का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया !

जाम्बन्त ने अपनी कन्या का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया और मणि तथा बहुत सा धन दहेजस्वरुप प्रदान किया ! श्रीकृष्ण जाम्बन्ती के साथ मणि लेकर वापस द्वारका लौटे ! सत्राजित को तब तक जंगल से लौटे यादवों से प्रसेनजित के साथ जो कुछ हुआ, उसकी पूर्ण जानकारी मिल चुकी थी और अपने भाई का शव जंगल से लाकर वह अंतिम संस्कार भी कर चुका था ! उसने अपने व्यवहार पर श्रीकृष्ण से क्षमा माँगी और उसने भी अपनी पुत्री सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण के साथ कर दिया।

श्रीकृष्ण ने स्यमन्तक मणि सत्राजित को लौटा दी ! सत्राजित ने वह मणि वापस श्रीकृष्ण को देनी चाही तो श्रीकृष्ण ने मणि लेने से इनकार कर दिया और कहा -"यह मणि भगवान सूर्य ने आपको प्रदान की है, इसे आप ही रखें, किन्तु इससे मिलने वाला सोना आप मथुरा के राजा उग्रसेन को दे दिया करें, जिसे वे प्रजा की भलाई के लिए काम में ला सकें !

कुछ समय पश्चात हस्तिनापुर से श्रीकृष्ण को पाण्डवों के लाक्षागृह में जलकर मर जाने का समाचार मिला ! पाण्डवों की माता कुन्ती, श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की सगी बहन थीं ! वसुदेव के पिता शूरसेन के मित्र राजा कुन्तिभोज निःसंतान थे ! उन्होंने शूरसेन से उनकी नवजात पुत्री को माँग लिया और उस का नाम कुन्ती रखा ! यद्यपि वह राजा कुन्तिभोज के यहां पली-बढ़ीं थीं, फिर भी वसुदेव के साथ उनका भाई-बहन का रिश्ता सदैव कायम रहा ! कुन्ती श्रीकृष्ण की बुआ थीं, इसलिए श्रीकृष्ण यह सच्चाई जानते हुए भी कि पाण्डव लाक्षागृह की आग में जलकर मरे नहीं हैं, लोगों की उक्तियों (कड़वी बातों) से बचने, तथा धृतराष्ट्र तथा कौरवों का भ्रम बनाये रखने के लिए हस्तिनापुर रवाना हो गए !

सत्राजित यादव की स्यमन्तक मणि की चर्चा दूर-दूर तक थी, इसलिए बहुत से लोगों की कुदृष्टि उस पर थी ! श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर जाने के बाद रिश्ते में श्रीकृष्ण के चाचा कहलाने वाले अक्रूर जी, अपने एक मित्र ऋतु वर्मा के साथ उस क्षेत्र के दुष्ट एवं बलशाली शतधन्वा यादव से मिले ! शतधन्वा उनका मित्र था और वह स्यमन्तक मणि प्राप्त करने के बारे में उनसे बहुत बार वार्तालाप कर चुका था ! अक्रूर जी तथा ऋतु वर्मा ने शतधन्वा से कहा कि यही सही समय है ! तुम शूर-वीर भी हो और धूर्त व चालाक भी ! किसी तरह सत्राजित के यहाँ से चुराकर स्यमन्तक मणि ले आओ तो उससे प्राप्त होने वाले सोने से तुम एक ही दिन में धनाढ्य बन सकते हो !

शतधन्वा ने रात के अन्धेरे में चोरों की तरह सत्राजित के घर प्रवेश किया और और सोते हुए सत्राजित की ह्त्या कर, मणि चुरा कर भाग निकला, किन्तु उसे भागते समय सत्राजित की पुत्री सत्यभामा ने देख और पहचान लिया, जो कि श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर जाने पर कुछ दिन अपने पिता के संसर्ग में काटने के लिए मायके आ गयी थी ! श्रीकृष्ण हस्तिनापुर से लौटे तो सत्यभामा ने रोते-रोते दुष्ट शतधन्वा द्वारा पिता की ह्त्या और स्यमन्तक मणि चुराने के बारे में बताया ! श्रीकृष्ण ने बड़े भ्राता बलराम को सारी बात बताई तो बलराम जी भी शतधन्वा को उसके किये का दण्ड देने के लिए श्रीकृष्ण के साथ हो लिए ! शतधन्वा को अपने दुष्ट मित्रों से श्रीकृष्ण के द्वारका लौट आने का समाचार मिल चुका था ! वह अपना घर छोड़ जान बचाने के लिए अक्रूर के पास पहुँचा !

उसने गिड़गिड़ाते हुए अक्रूर से प्राण रक्षा की भीख माँगी तो अक्रूर जी ने कहा -"यदि कृष्ण तुम्हें मारने के लिए निकल पड़ा है तो तुम्हें दुनिया की कोई ताकत नहीं बचा सकती और फिर बलराम भी अगर कृष्ण के साथ है तो तुम्हारी हड्डियां चूर-चूर होनी भी निश्चित हैं ! हाँ, मैं तुम्हारी एक मदद कर सकता हूँ ! स्यमन्तक मणि तुम मुझे दे दो, कृष्ण मुझसे यह मणि नहीं छीन सकेगा ! वह मेरा बहुत आदर करता है ! यदि तुम बच गए तो मणि जब चाहे वापस आकर मुझसे ले लेना !"
शतधन्वा ने मणि अक्रूर को दे दी और जान बचाने के लिए वहां से भी भाग निकला !

उसके जाते ही अक्रूर जी ने सोचा कि शतधन्वा से मित्रता के कारण उसे मणि चोरी का अवसर बताकर उनसे जो भूल हुई है, उसका प्रायश्चित यही है कि यदि शतधन्वा बच भी जाए तो यह मणि वापस उसके हाथ न दी जाए ! और द्वारका में रहते यह सम्भव नहीं था ! शतधन्वा सत्राजित की ह्त्या कर देगा, यह भी अक्रूर जी ने कल्पना भी नहीं की थी ! सत्राजित की मृत्यु का वह स्वयं को जिम्मेदार मान रहे थे, इसलिए वह श्रीकृष्ण से भी मिलना नहीं चाह रहे थे ! श्रीकृष्ण का सामना न करने के उद्देश्य से अक्रूर जी ने द्वारका छोड़ काशी जा बसने का निर्णय लिया और उसी समय द्वारका से निकल पड़े !

श्रीकृष्ण ने जब शतधन्वा को अपने घर में न पाया तो उसे ढूँढने निकल पड़े ! आस-पास के लोगों से पूछते हुए अंततः उन्होंने श्रीकृष्ण द्वारका छोड़कर भागने का प्रयास कर रहे शतधन्वा का सर धड़ से अलग कर दिया ! किन्तु श्रीकृष्ण को स्यमन्तक मणि शतधन्वा के पास से नहीं मिली !

श्रीकृष्ण का अनुसरण करते हुए बड़े भैया बलराम भी द्वारका के बहुत से लोगों के साथ घटनास्थल पर पहुँच गए ! उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा -"ज़रा मुझे भी तो दिखाओ - वह मणि, जिसके कारण सत्राजित की ह्त्या हो गयी ! जो प्रतिदिन स्वर्णदान करती है!"

"दाऊ (बड़े भैया) !" श्रीकृष्ण ने कहा -"मणि शतधन्वा के पास नहीं थी !"
बलराम जी को विश्वास नहीं हुआ, किन्तु उन्होंने कुछ कहा नहीं ! परन्तु उनके साथ वहाँ उपस्थित द्वारकावासी श्रीकृष्ण से तर्क करने लगे -"शतधन्वा ने मणि चुराई थी तो मणि उसके पास क्यों नहीं मिली ? मणि तो उसके घर पर भी नहीं थी !"

श्रीकृष्ण किसी को सन्तुष्ट नहीं कर सके ! असन्तुष्ट बलराम चुपचाप वहाँ से अकेले ही विदर्भ की ओर निकल गए ! श्रीकृष्ण अकेले ही द्वारकानिवास पहुँचे ! द्वारका में लोगों ने श्रीकृष्ण को यह कहकर बार-बार अपमानित किया कि एक मणि छुपाकर रखने के लिए तुमने अपने भ्राता का परित्याग कर दिया ! कृष्ण, तुम इतने लोभी कब से हो गए! अक्रूर जी के द्वारका से जाने के बाद द्वारका में बहुत दिनों तक बरसात नहीं हुई अकाल के लक्षण दिखाई देने लगे ! लोग बीमार रहने लगे ! दुर्घटनाएं होने लगीं ! श्रीकृष्ण के लिए यह दुःख का एक और कारण बढ़ गया ! अपमान तथा दाऊ के रूठ कर चले जाने से श्रीकृष्ण दुखी तो वह थे ही ! एक दिन श्रीकृष्ण दुखी और उदास बैठे थे कि देवर्षि नारद का वहाँ आगमन हुआ !

"नारायण-नारायण ! प्रभु, सदा-सर्वदा प्रसन्न रहने वाले श्रीमुख पर शोक और चिन्ता के बादल किसलिए मँडरा रहे हैं ?" देवर्षि नारद ने प्रश्न किया तो श्रीकृष्ण बोले -"पता नहीं मुझसे क्या गलती हुई है देवर्षि कि पहले सत्राजित ने मुझे स्यमन्तक मणि का चोर ठहरा दिया ! अब बलदाऊ भी मुझसे रुष्ट हो गए हैं ! वह समझते हैं कि स्यमन्तक मणि मैंने कहीं छुपा ली है ! और द्वारकावासी भी मुझे लोभी समझ रहे हैं, जबकि मैंने तो कोई भूल की ही नहीं है !"

"भूल तो आपने अवश्य की है प्रभु, किन्तु आपको अपनी भूल का सम्भवतः पता नहीं है !" देवर्षि नारद मुस्कुराये -"आपने अज्ञानतावश भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का चन्द्रमा देख लिया था। इसीलिए आपको चोरी तथा लोभी होने के लांछन सहने पड़ रह हैं !"

"किन्तु भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी में चन्द्रमा के दर्शन से मुझे यह लांछन क्यों सहने पड़ रहे हैं ?" श्रीकृष्ण ने पूछा !

तब देवर्षि नारद ने ‘श्रीगणेश पर अकारण हँसने के कारण चन्द्रमा को मिले शाप’ के बारे में श्रीकृष्ण को बताया और कहा -"इस बार चतुर्थी पर आप सिद्धिविनायक गणपति गजानन का व्रत करें तथा श्रीगणेश मन्त्र का जाप करें तो आपके सारे कष्ट दूर हो जाएंगे !"

"परन्तु देवर्षि, सदा सुख-सम्पन्नता-समृद्धि से भरी द्वारका में अकाल के बादल मँडराने लगे हैं, क्या यह भी मेरा ही दोष है ?" श्रीकृष्ण ने पूछा !

"नहीं, यह सब तो इसलिए है, क्योंकि द्वारका से भगवान् सूर्य का आशीर्वाद पलायन कर गया है ! वह स्यमन्तक मणि, जो भगवान् सूर्य ने अपने परमभक्त सत्राजित को दी थी, वह अब काशी को धन-धान्य और समृद्धि से परिपूर्ण कर रही है ! शतधन्वा ने मरने से पहले वह मणि अक्रूर जी को दे दी थी और अक्रूर जी मणि सहित काशी चले गए तथा द्वारका का भाग्य भी अस्त कर गए ! आप अक्रूर जी को सम्मान सहित द्वारका बुलाइये और स्वयं सिद्धिविनायक गणपति गजानन को प्रसन्न करने के लिए श्रीगणेश चतुर्थी का व्रत कीजिये तो सब उत्तम होगा !"

श्रीकृष्ण को लगा कि यदि मैं स्वयं अक्रूर जी को लेने गया तो सम्भव है, वह न आयें ! तब उन्होंने द्वारका के सभी गणमान्य लोगों को एकत्रित किया और उन्हें बताया कि स्यमन्तक मणि शतधन्वा ने अक्रूर जी को दे दी थी और अक्रूर जी अब काशी में हैं ! श्रीकृष्ण ने सबसे अनुरोध किया कि काशी जाकर अक्रूर जी को ससम्मान वापस द्वारका लायें !

द्वारका के लोगों का अनुरोध अक्रूर जी ठुकरा न सके ! वह वापस द्वारका लौटे और उनके लौटते ही द्वारका में खुशहाली छा गयी !
बरसात भी हुई ! फसल भी अच्छी हुई ! रोग-कष्ट आदि दुःख भी ख़त्म हो गए !

श्रीकृष्ण ने भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का व्रत किया! उनके साथ उनकी तीनों रानियों रुक्मिणी, जाम्बन्ती और सत्यभामा ने भी सिद्धिविनायक गणपति गजानन को प्रसन्न करने के लिए व्रत किया!

द्वारका के लोग श्रीकृष्ण के निर्दोष होने की सच्चाई जानकर फिर से उनकी जयजयकार करने लगे !

Our Thanks to

Mr. B.S. SARIN

HARIOM SINGHAL

RAKESH MITTAL

DIVYANSH MITTAL

RAJ MITTAL

KANTA MITTAL

MEGHNA MITTAL

Contact

YOGESH MITTAL

Shop No: 26, Pocket : F
G-8 Area, Hari Kunj,
Hari Nagar
New Delhi, Pin-110064

Mob: 9210750019

Email:humhindus.com@gmail.com

Website developed by

PINKI SINGHANIA

singhaniapinki1999@gmail.com

गणेश कथाएँ

गणेश चतुर्थी

क्यों नहीं देखें - चतुर्थी का चाँद ?

श्रीगणेश पूजन में दूर्वा का उपयोग क्यों ?

क्यों वर्जित है तुलसी - श्रीगणेश पूजन में ?

भगवान् शिव ने की नारियल की रचना