होली रंगों का एक अनोखा त्यौहार है ! शरद ऋतु के अंत में और ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ से पहले, वसन्त ऋतु में फागुन (फाल्गुन) के महीने की पूर्णिमा के दिन यह त्यौहार मनाया जाता है ! भारत के अलावा नेपाल तथा जिन देशों में हिन्दू लोग रहते हैं, वहाँ भी होली का त्यौहार बहुत उमंग और उल्लास के साथ मनाया जाता है !
ग्रामीण अंचलों में होली का त्यौहार वसन्त पंचमी के दिन से ही मनाया जाना शुरू हो जाता है ! यूँ तो विभिन्न क्षेत्रों में होली की कई कहानियां प्रचलित हैं ! किन्तु सबसे मुख्य कथा भक्त प्रह्लाद और होलिकादहन की कहानी है ! प्रह्लाद की कहानी हम विवरण सहित प्रस्तुत कर रहे हैं !
कहा जाता है असुर राज हिरण्यकश्यप अथवा हिरण्यकशिपु अपने भाई हिरण्याक्ष का नारायण के वराह अवतार द्वारा वध का बदला लेने के लिए, सृष्टिनिर्माता ब्रह्मा जी को प्रसन्न करने के लिए, निर्जन वन में गए और तपस्या में लीन हो गए ! लेकिन देवताओं को यह बात ज्ञात हो गयी !
देवगुरु बृहस्पति ने देवताओं के कहने पर एक तोते का रूप धारण किया और उसी पेड़ के ऊपर बैठकर नारायण-नारायण का जाप करने लगे, जिसके नीचे बैठकर हिरण्यकश्यप तपस्या कर रहा था ! गुरु बृहस्पति की ओजस्वी वाणी हिरण्यकश्यप के कानों में गूँजने लगी !
गुरु बृहस्पति ने पूरे एक सौ आठ बार नारायण का जाप किया ! जैसे ही उन्होंने एक सौ आठवीं बार नारायण का जाप किया, हिरण्यकश्यप उठ खड़ा हुआ ! वह तपस्या बीच में ही छोड़ खिन्न मन से वापस लौट गया ! राजभवन पहुँचने पर हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु ने उससे पूछा कि आप तो तपस्या करने गए थे ! इतनी जल्दी कैसे लौट आये तो हिरण्यकश्यप ने बताया - जिस वृक्ष के नीचे मैं तपस्या के लिए बैठा था, उसी पर एक तोता आकर बैठ गया, वह नारायण-नारायण का जाप कर रहा था, जिसके कारण मैं तपस्या में अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर सका !
"आपने नारायण-नारायण का जाप कितनी बार सुना ?" कयाधु ने पूछा !
हिरण्यकश्यप ने अपनी आँखें मूँदी और नारायण-नारायण रटकर याद करने लगा कि कितनी बार नारायण-नारायण का जाप उसने सुना था ! आखिर उसने भी एक सौ आठ बार नारायण-नारायण का उच्चारण कर गिनती गिनने के बाद कयाधु को बताया कि उसने एक सौ आठ बार नारायण-नारायण का जाप सुना था !
इस प्रकार अनायास ही हिरण्यकश्यप के अधरों से भी एक सौ आठ बार नारायण-नारायण उच्चारित हुआ !
हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु उस समय गर्भवती थी और गर्भ के बालक ने भी अपने पिता के श्रीमुख से एक सौ आठ बार श्रीहरि के नाम का जाप "नारायण-नारायण" सुना और प्रभु का नाम उसके रोम-रोम में समा गया ! गर्भस्थ शिशु का रोम-रोम गर्भ में ही नारायण-नारायण का जाप करने लगा !
अगले दिन हिरण्यकश्यप तपस्या के लिए फिर से निर्जन वन में गया ! इस बार वह अपने साथ कुछ अनुचरों को भी ले गया और उन्हें आदेश दिया कि उसके निकट किसी भी पशु-पक्षी को न आने दिया जाए !
हिरण्यकश्यप सुध-बुध खोकर तपस्या में लीन हो गया ! देवराज इन्द्र ने इसे उचित अवसर जान असुरलोक पर आक्रमण कर दिया और विजय प्राप्त की ! हिरण्यकश्यप की गर्भवती पत्नी कयाधु को भी देवराज इन्द्र ने बन्दी बना लिया और उसे देवलोक ले जाने लगे ! तभी देवर्षि नारद प्रकट हुए और बोले - "देवराज ! आप देवी कयाधु को देवलोक मत ले जाइये ! देवी कयाधु के गर्भ में इस युग का महानतम हरिभक्त पल रहा है ! यदि आपकी किसी भी गलती से देवी कयाधु अथवा उनके शिशु को कोई कष्ट हुआ तो श्रीहरि के कोप से आपको कोई भी नहीं बचा सकेगा !
देवराज इन्द्र ने देवर्षि नारद द्वारा दी गयी चेतावनी सुनकर कयाधु को प्रणाम किया और देवर्षि नारद के संरक्षण में दे दिया !
हिरण्यकश्यप की गर्भवती पत्नी को देवर्षि नारद ससम्मान अपने आश्रम में ले आये ! देवर्षि नारद तो श्रीहरि ( श्रीविष्णु जी) के परम भक्त थे ! वह हिरण्यकश्यप की पत्नी को नित्य धर्म का ज्ञान देते और हरि नाम की महिमा से अवगत कराते !
उधर निर्जन वन में तपस्या करते हिरण्यकश्यप ने कठोर तप से ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया और उनसे यह वरदान माँगा कि कोई भी जीव-जन्तु, देवी-देवता, राक्षस या मनुष्य उसे न मार सके। न ही वह रात में मरे, न ही दिन में ! न पृथ्वी पर उसकी मृत्यु हो और न ही आकाश में ! न घर में, न ही बाहर। कोई अस्त्र-शस्त्र भी उसे न मार पाए।
यह विचित्र वरदान प्राप्त होते ही हिरण्यकश्यप अभिमान से भर गया कि अब उसे कोई देवी-देवता परास्त नहीं कर सकता ! कोई भी बड़े से बड़ा पराक्रमी योद्धा उसे परास्त नहीं कर सकता ! उसे मार नहीं सकता ! वरदान प्राप्त करने के बाद हिरण्यकश्यप ने अपना राज्य पुनः प्राप्त किया ! उसके बाद उसने वायु, अग्नि, वरुण, चन्द्र और यम पर को भी अपने अधीन कर लिया ! कुबेर को अपने अधीन कर धन का स्वामी भी वह स्वयं ही बन गया था ! वह स्वयं ही सभी यज्ञ फलों को भी भोगता था । अपनी पत्नी कयाधु को भी वह देवर्षि नारद के आश्रम से वापस ले आया !
हिरण्यकश्यप स्वयं को ईश्वर मानने लगा ! उसने राज्य में किसी भी देवी- देवता की उपासना पर कठोर पाबन्दी लगा दी !
हिरण्यकश्यप और कयाधु का पुत्र जन्म से ही हरिभक्त था ! एक दिन हिरण्यकश्यप ने उसे हरिनाम का जाप करते देख लिया तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ ! उसने प्रह्लाद से कहा कि यदि उसने पूजा ही करनी है तो उसकी पूजा करे ! वही भगवान है ! किन्तु प्रह्लाद ने कहा कि पिताश्री, आप भगवान कैसे हो सकते हैं ! माता के गर्भ में रहते हुए मैंने स्वयं आपको नारायण-नारायण का जाप करते सुना था !
हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को बहुत समझाया, किन्तु वह प्रह्लाद को हरिनाम जपने से रोक नहीं पाया तो दैत्यों के गुरु को बुलाकर आज्ञा दी कि वे प्रह्लाद को ऐसी शिक्षा दें कि वह हरिनाम जपना छोड़ दे ! दैत्यगुरु ने प्रह्लाद को भाँति-भाँति की शिक्षा देकर उसे समझाया कि वह विष्णु जी की आराधना करना छोड़ दे ! किन्तु दैत्यगुरु किसी भी तरह प्रह्लाद को हरिनाम जपने से रोक नहीं पाए ! तब हिरण्यकश्यप ने सेवकों को आज्ञा दी कि प्रह्लाद को विष देकर उसकी जीवन लीला छीन ली जाए !
सेवकों ने हलाहल विष (तीव्र असर वाला विष) लाकर प्रह्लाद को दिया ! हिरण्यकश्यप ने प्रह्लाद को विष पी जाने के लिए कहा ! प्रह्लाद ने विष का पात्र पालक झपकते ही पीकर खाली कर दिया, किन्तु प्रभु की लीला अपरम्पार है ! हलाहल विष प्रह्लाद के अधरों को छूते ही मीठे शरबत में बदल गया !
यह देख हिरण्यकश्यप अचम्भित रह गया ! उसने दो सैनिकों को बुलाकर तलवार के वार से प्रह्लाद के टुकड़े-टुकड़े करे देने की आज्ञा दी !
सैनिकों ने पूरी ताकत से प्रह्लाद पर वार किये ! किन्तु उनकी बेहद मजबूत तलवारें टूट गयीं ! प्रह्लाद को खरोंच भी न आई ! वह आँखें मूंदे हरिनाम जपता रहा ! हिरण्यकश्यप ने अतिक्रुद्ध होकर भयंकर विषधर नागों को बुलाकर प्रह्लाद को डंस लेने का आदेश दिया ! एक साथ सहस्त्र भयंकर विषधारी नागों ने प्रह्लाद पर आक्रमण कर दिया ! उनमें से कई इतने विशाल थे कि प्रह्लाद को सशरीर निगल सकते थे, किन्तु वे जितना भी मुँह फाड़ते प्रह्लाद का कद उससे बड़ा हो जाता ! नागों ने प्रह्लाद को निगलने और डंसने का भरसक प्रयास किया, किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली ! तब नागों के राजा ने हिरण्यकश्यप के सामने आकर हाथ जोड़ते हुए कहा -"महाराज, प्रह्लाद के शरीर के त्वचा को नागों के नुकीले दाँत भी नहीं भेद पा रहे ! ना ही नागों के विशाल मुँह प्रह्लाद को निगलने में सफल हो पा रहे हैं !
हिरण्यकश्यप को आश्चर्य भी हुआ और उसे क्रोध भी आया ! उसने सैनिकों को आदेश दिया कि प्रह्लाद को जंगली हाथियों के झुण्ड के सामने फेंक दिया जाए और हाथियों को प्रह्लाद के शरीर पर दौड़ा दिया जाए !
ऐसा ही किया गया ! बहुत सारे हाथियों का झुण्ड प्रह्लाद के ऊपर से गया, किन्तु उसका बाल भी बाँका न हुआ ! हाथियों के गुजर जाने के बाद प्रह्लाद "नारायण-नारायण" जपता धूल झाड़ता हुआ उठ खड़ा हुआ ! जिन सैनिकों ने यह दृश्य देखा, उन्होंने दाँतों तले उँगली दबा ली ! एक सैनिक अधिकारी ने पूछा - "प्रह्लाद ! इतने सारे हाथी तुम्हारे ऊपर से गुजर गए ! तुम्हें कुछ नहीं हुआ ! ऐसा कैसे हुआ ?"
प्रह्लाद चकित होकर बोला -"हाथी नहीं, मुझे लगा मेरे ऊपर बहुत सारी चींटियाँ चल रही हैं ! मैं तो अपने प्रभु का स्मरण कर रहा था ! हाथियों को तो मैंने देखा तक नहीं !"
यह भी प्रभु की लीला थी कि सभी हाथियों का विशाल शरीर प्रह्लाद के शरीर पर से गुजरते हुए चींटी के सूक्ष्म शरीर जैसा हल्का होता चला गया !
सैनिकों ने वापस लौटकर हिरण्यकश्यप को सारा समाचार दिया तो वह बोला - "ठीक है ! प्रह्लाद को निकटवर्ती पर्वत की सबसे ऊँची छोटी पर ले जाकर नीचे फेंक दो ! इतना ऊंचे से नीचे गिरने पर इसकी हड्डी-पसली सब टूट जायेंगी और इसके प्राण पखेरू उड़ जायेंगे !"
इस बार सैनिकों ने ऐसा ही किया, किन्तु पर्वत से नीचे गिरते ही - मानों प्रभु के दो हाथों ने उसे सम्भाल लिया और नीचे धरती पर सही-सलामत खड़ा कर दिया !
प्रह्लाद हरिनाम जपता हुआ वापस घर आ गया !
प्रह्लाद की जीवन लीला समाप्त करने के इतने उपायों को असफल हुआ देख हिरण्यकश्यप परेशान हो उठा और उसने अपनी बहन होलिका को बुलाया ! होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि जब तक वह किसी अति उत्तम मनुष्य को हानि नहीं पहुंचाएगी - आग उसे कभी नहीं जला सकेगी !
हिरण्यकश्यप ने होलिका से कहा - मैंने बहुत प्रयास किया कि प्रह्लाद विष्णु का नाम न ले, पर वह विष्णु की भक्ति में ऐसा डूबा हुआ है कि मेरा आदेश भी उसे मान्य नहीं ! मैंने उसकी जीवन लीला समाप्त करने के लिए हर तरह का प्रयास कर लिया ! बस, अब तो उसे अग्नि में झोंक कर ही परलोक भेजना होगा, किन्तु चंचल बालक है बाँधकर भी आग में डाला गया तो बंधन जलते ही उठकर भाग खड़ा होगा ! इसलिए अच्छा तो यही होगा कि तुम उसे गोद में लेकर आग में बैठ जाओ ! तुम्हें वर प्राप्त है कि अग्नि तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ! इसलिए तुम्हारा कुछ नहीं बिगड़ेगा और प्रह्लाद जलकर राख हो जाएगा !
होलिका इसके लिए मान गयी ! फागुन की पूर्णिमा से एक दिन पहले एक विशाल चिता बनाई गयी और होलिका प्रह्लाद को गोद में उठा कर बीचोंबीच बैठ गयी ! फिर उस विशाल चिता को आग लगा दी गयी !
प्रह्लाद तो अपनी बुआ की गोद में भी हरिनाम का स्मरण करता रहा ! वह तनिक भी भयभीत नहीं हुआ !
धधकती आग में होलिका जलकर राख हो गयी और प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ ! प्रह्लाद हरिनाम जपता हँसता-मुस्कुराता आग से बाहर निकल आया !
इसीलिये होली खेलने से एक दिन पहले होलिका जलाई जाती है !
होली से एक दिन पहले होलिका दहन का पर्व मनाया जाता है ! उस दिन लोग गली -मोहल्ले में, चौराहों पर लकड़ियों और गोबर के कंडों से एक घेरे में होली सजाते हैं ! फिर रात के समय नाचते गाते हुए होली में आग लगाकर खुशियां मनाते हैं !
शहरों में होलिका दहन का पर्व सुविधाओं के अनुरूप बहुत से बदलाव ले चुका है ! किन्तु ग्रामीण अंचलों में लोग गेंहूँ की बाली, कच्चे चने के होले और सरकण्डों की माला लेकर होलिका दहन के स्थल पर जाते हैं ! गेंहूँ की बाली और चने को होली की आग में भूना जाता है ! सरकण्डों की माला में गाय के गोबर से बने छेद वाले सात गोल सरकण्डे होते हैं, जिन्हें मूँज या जूट की रस्सी में पिरोकर माला बनाई जाती है, उसे भाइयों एवं परिवार के लोगों के ऊपर से सात बार घुमाकर होली की आग में फेंक दिया जाता है ! माना जाता है कि इससे परिवार या भाइयों पर आने वाली सभी बलाएँ और विपत्तियाँ होली की आग में जलकर भस्म हो जाती हैं !
होली पूजन तो दोपहर से ही आरम्भ हो जाता है ! होलिकादहन के स्थल पर लोग दिन में भी घर के बने पकवान -मिष्ठान्न लेकर भोग लगाने आते हैं ! होली के दिन भोजन के रूप में खीर-पूरी-सब्जी आदि बनाई जाती हैं, किन्तु बहुत से परिवारों में गुजिया भी बनाई जाती है ! गुजिया विशेष रूप से होली का पकवान है !
होलिका दहन के अगले दिन धुलेंडी अथवा धूलिवंदन का पर्व मनाया जाता है ! यही होली का असली त्यौहार है ! वास्तव में यह त्यौहार मेल-मिलाप का त्यौहार है ! बैर अथवा दुश्मनी के नाश का त्यौहार है ! आज के युग में कहीं-कहीं विकृत रूप लेता जा रहा है, किन्तु एक-दूसरे पर रंग डालकर, माथे पर गुलाल मलकर, प्रेम भाव से गले मिलकर एक-दूसरे को मिष्ठान्न -पकवान खिलाकर निकट सम्बन्धों को अधिक मजबूत करने का त्यौहार ही होली है !
दोपहर तक रंग खेल कर, नाच-गाकर-ढोल-मंजीरे-ढपली बजाकर, घूम-घूम कर होली का त्यौहार मनाया जाता है ! दोपहर बाद स्नान करके लोग अपने परिचितों-मित्रों-रिश्तेदारों के यहाँ जाकर एक-दूसरे से गले मिलकर, माथे पर गुलाल का टीका लगाकर, मुँह मीठा करवाकर होली की बधाई देते हैं !
होली का साहित्य, संगीत, गीत और नृत्यों और चित्रकारों की दृष्टि में भी विशेष महत्त्व रहा है ! । कवि विद्यापति,, सूरदास, रहीम, रसखान, पद्माकर, जायसी, मीराबाई, कबीर के अलावा बिहारी, केशव, घनानंद आदि अनेक कवियों ने होली पर अपनी रचनाएँ लिखी हैं ! कृष्ण-राधा की रासलीला के चित्रों में भी होली की बहुत सी अनूठी पेंटिंग्स देखी जा सकती हैं !
होलिका दहन के बाद ही भक्त प्रह्लाद और हिरण्यकश्यप की कहानी का अंतिम अध्याय है ! अपनी प्रिय बहन होलिका के आग में जलकर मर जाने और प्रह्लाद के जीवित बच जाने की खबर से हिरण्यकश्यप इतना कुपित हुआ कि वह स्वयं ही प्रह्लाद को मारने के लिए महल से बाहर की तरफ दौड़ा !
उस समय दैत्यगुरु और अन्य विद्वानों ने हिरण्यकश्यप को रोका और उसे बताया कि उसे अपने हाथों से अपने पुत्र का वध नहीं करना चाहिए !
उसी समय प्रह्लाद हरिनाम जपता हुआ हिरण्यकश्यप के सामने आ गया ! तब क्रोध से लाल-पीला होते हुए हिरण्यकश्यप बोला- "तू जो यह नारायण-नारायण" जपता रहता है ! कहीं है भी तेरा नारायण !"
"नारायण तो हर जगह हैं पिताश्री !" प्रह्लाद ने कहा !
"यदि ऐसा है तो क्या वह इस खम्भे में भी है !" हिरण्यकश्यप ने महल की बाहरी दहलीज पर बने खम्बे की तरफ संकेत किया !
"नारायण तो कण कण में हैं पिताश्री !" प्रह्लाद ने कहा !
"तो फिर बुला उसे ! अन्यथा मैं तुझे जान से मार डालूँगा !" कहते हुए हिरण्यकश्यप ने उस खम्भे पर जोरदार मुष्टिप्रहार किया !
तत्काल ही खम्भा फट गया और खम्भे से आधा मानव -आधा पशु नरसिंह अवतार (सिंह के मुँह के मानव) प्रकट हुआ और उसने हिरण्यकश्यप को उठा लिया महल की दहलीज पर ही अपनी जांघ पर लिटाकर अपने बड़े-बड़े नाखूनों से उसका पेट चीरकर उसे मार डाला !
इस प्रकार हिरण्यकश्यप की मृत्यु ना तो जमीन पर हुई, ना ही आसमान में ! ना उसकी मृत्यु घर में हुई, ना ही बाहर ! ना तो उसे किसी देवता ने मारा, ना ही किसी दानव ने ! ना तो उसे मानव ने मारा, न ही किसी पशु ने ! ना ही उसे किसी अस्त्र से मारा गया, ना ही किसी शस्त्र से ! जिस समय भगवान नरसिंह ने हिरण्यकश्यप का वध किया, उस समय सूर्यास्त हो चुका था, किन्तु रात नहीं हुई थी ! न उस समय दिन था और न ही रात हुई थी ! हिरण्यकश्यप ने अनूठा वर माँगकर स्वयं को अमर मान लिया था ! परन्तु पापियों के नाश के लिए प्रभु हज़ार रास्ते निकाल लेते हैं !
इसीलिये कहा जाता है - जब-जब धरती पर पाप बढ़ता है, प्रभु किसी न किसी रूप में अवतार लेकर दुष्टों का नाश करते हैं - उनका संहार करते हैं !