सावन अथवा श्रावण महीने की पूर्णिमा के दिन रक्षा बंधन अथवा राखी का त्यौहार बहुत धूम धाम से मनाया जाता है ! यह भाई बहन के पवित्र प्रेम का पर्व है !
यह पर्व कब से मनाना आरम्भ हुआ, इस विषय में कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं मिलती ! किन्तु कहा जाता है - एक बार देव और दानवों में लगातार बारह वर्ष तक भयंकर युद्ध होता रहा ! देवता दानवों से हारने लगे ! यह देख इन्द्राणी ने इन्द्र के प्राणों की रक्षा के लिए घोर तप करके एक रक्षा सूत्र प्राप्त किया ! फिर पहली बार देवराज इन्द्र की पत्नी शची इन्द्राणी ने श्रावण पूर्णिमा के दिन इन्द्र की कलाई में रक्षा सूत्र बाँधा था !
कई कथाओं में यह कहा गया है कि इन्द्राणी ने रक्षासूत्र तैयार करके देवगुरु बृहस्पति को दिया और देवगुरु बृहस्पति ने स्वस्ति वाचन करते हुए रक्षासूत्र देवराज इन्द्र की कलाई में बांधा था !
स्वस्ति वाचन का अर्थ है - किसी भी शुभ काम को करते हुए उस कार्य के आरम्भ के लिए शुभ मन्त्रों का उच्चारण करना ! गुरु बृहस्पति ने स्वस्ति वाचन करते हुए निम्न मन्त्र पढ़ा –
येन बद्धो बलिराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामपि बध्नामि रक्षे मा चल मा चल ॥
यह श्लोक रक्षाबन्धन का शुभ मन्त्र है !
कहा जाता है श्रावण पूर्णिमा के दिन रक्षा सूत्र बाँधे जाने के कारण इस दिन का नाम रक्षा बन्धन पड़ा और इस रक्षा सूत्र बाँधने की प्रथा का चलन आरम्भ हुआ !
पुराणों में एक कथा यह भी मिलती है कि दानवों के राजा बलि ने जब सौ यज्ञ पूरे करके स्वर्ग पर अपना अधिकार जमाने के प्रयास शुरू किये तो देवराज इन्द्र, सभी देवताओं के साथ भगवान् विष्णु की शरण में पहुँचे और रक्षा के लिए प्रार्थना की !
भगवान विष्णु ने कहा कि बलि उनका भक्त है और वह अपने भक्त का संहार नहीं कर सकते ! परन्तु देवताओं के गिड़गिड़ाने पर उन्होंने कहा कि देवताओं की रक्षा और सहायता के लिए वह कोई उपयुक्त युक्ति सोचेंगे !
तब भगवान विष्णु ने ऋषि कश्यप की पत्नी के गर्भ से वामन रूप धर कर जन्म लिया ! फिर जब एक दिन बलि यज्ञ की तैयारियों में लगा था ! विष्णु भगवान ब्राह्मण वेशधारी वामन रूप में दानवराज बलि के सामने भिक्षा माँगने पहुँच गए !
गुरु शुक्राचार्य भगवान विष्णु को पहचान गए और उन्होंने तत्काल ही दानवराज बलि से कहा – “इस बौने ब्राह्मण को मुझसे पूछे बिना कुछ मत देना !”
दानवराज बलि ने अपने गुरु की बात पर ध्यान न दिया ! ब्राह्मण वेशधारी वामन से उसने पूछा तो वामन अवतार भगवान विष्णु ने दानवराज बलि से तीन पग भूमि की याचना की ! दानवराज बलि दानवीर बलि कहलाता था - उसके यहाँ से कोई याचक खाली नहीं जाता था ! उसने वामन प्रभु से कहा - "ठीक है ! आप अपने ही पग से नापकर तीन पग भूमि ले लीजिये !"
तब ब्राह्मण वेश में वामन प्रभु ने अपना विराट रूप दिखा दिया। एक ही पग में वामन प्रभु ने समस्त भूमण्डल नाप लिया। दूसरे पग में सारा स्वर्ग नाप लिया ! फिर तीसरे पग के लिए बलि से पूछा - "दानवश्रेष्ठ ! अब मैं अपना तीसरा पग कहाँ रखूँ ?"
दानवराज बलि तो भगवान विष्णु का परमभक्त था ! वामन प्रभु द्वारा दो ही पगों में धरती और स्वर्ग नाप लेने से उसे तुरन्त समझ में आ गया कि यह लीला तो लीलाधर भगवान विष्णु ही कर सकते हैं ! उसने तत्काल अपना सर झुका दिया और मुस्कुराते हुए बोला -पूछने पर बलि ने मुस्कराकर कहा- “दयानिधान ! अगर आपके तीसरे पग के लिए मेरे पास कुछ नहीं है तो यह मेरी गलती नहीं है ! आपने अपना संसार कुछ और बड़ा बनाया होता और मुझे भी कुछ और अधिक दिया होता ! मुझे तो आपने दो ही पगों में भिखारी बना दिया ! अब तो आप ही अपने भक्त पर कुछ दया कीजिये !"
वामन रूपधारी भगवान विष्णु दानवराज बलि के आचरण से अत्यन्त प्रसन्न हुए ! बोले - "दानवराज ! मैं तुम्हारी भक्ति और आचरण से अत्यन्त प्रसन्न हूँ ! इसलिए तुम्हारी कोई इच्छा हो तो तुम निःसंकोच कह सकते हो ! मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा !"
"तो प्रभु ! दिया हुआ दान तो मैं वापस मांग नहीं सकता ! पर अपने रहने के लिए मुझे कुछ तो जगह चाहिए !"
वामन प्रभु ने तत्काल ही भूगर्भ रसातल में एक सुन्दर नगरी का निर्माण कर दिया और कहा -"तुम रसातल में रह सकते हो दानवराज !"
दानवराज बलि अपने परिवार, साथियों और अनुयायियों सहित रसातल में चला गया ! किन्तु वहां उसने भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए घोर तप करना आरम्भ कर दिया !
भक्त की भक्ति से भगवान का सिंहासन डोल गया ! वह प्रकट हुए ! बोले - "तुम्हारे तप और भक्ति ने मुझे तुम्हारी तरफ खींच लिया दानवराज ? कहो, अब क्या चाहते हो ?"
दानवराज बलि मुस्कुराया -"भक्त का मन अपने भगवान के बिना नहीं लगता प्रभु !"
"तो कहो, क्या चाहते हो ?" अन्तर्यामी विष्णु सब कुछ जानते हुए भी अनजान बनते हुए बोले -"मैं तुम्हारी प्रत्येक मनोकामना पूरी करूँगा !"
"प्रभु ! मैं तो बस यह चाहता हूँ कि आज से क्या अभी से, आप हर पल मेरे सामने रहें ! मुझसे दूर कहीं न जाएँ !" दानवराज बलि ने कहा !
और फिर भगवान अपने भक्त के होकर रह गए ! भक्त को वचन जो दे दिया था !
विष्णु जी के बैकुण्ठ न लौटने से लक्ष्मी जी परेशान हो गयीं ! देवताओं में खलबली मच गयी !
सर्वत्र यह बात फ़ैल गयी कि भगवान विष्णु रसातल में दानवराज बलि के साथ रह रहे हैं ! विष्णु को ही प्रकृति का पालनकर्ता कहा जाता है ! उनके वैकुण्ठ छोड़ रसातल में रहने के कारण पृथ्वी-आकाश-स्वर्ग में हाहाकार मच गया !
तब देवर्षि नारद ने लक्ष्मी जी को एक उपाय सुझाया ! लक्ष्मी जी नारद जी के सुझाव को मान कर दानवराज बलि के यहां गयीं ! दानवराज बलि ने माता महालक्ष्मी का भव्य स्वागत किया तो लक्ष्मी जी ने बलि की कलाई में राखी बाँध कर कहा - "दानवराज ! आज से तुम मेरे भाई हो ! मेरी रक्षा का भार तुम पर है !"
दानवराज बलि ने भावुक होकर लक्ष्मी जी को रक्षा का वचन दिया और बोला -"बहन ! आप पहली बार मेरे यहाँ आईं हैं ! कहिये - मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ ! मैं आपकी हर इच्छा पूरी करूँगा !"
बस फिर क्या था - लक्ष्मी जी ने अपने भाई से बैकुण्ठेश्वर भगवान विष्णु को माँग लिया ! दानवराज बलि ने मुस्कुराते हुए अपनी बहन की माँग स्वीकार कर ली ! वह दिन श्रावण मास (सावन के महीने) की पूर्णिमा का दिन था !
महाभारत काल की भी एक कथा है -
एक बार युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा -"हम पर निरन्तर संकट न आयें ! इसके लिए हमें क्या करना चाहिए ?"
तब भगवान श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को सभी भ्राताओं, परिवार और सेना की रक्षा के लिए रक्षा बंधन का पर्व मनाने की सलाह दी और बताया कि रक्षा बंधन पर बाँधा जाने वाला रेशमी धागा रक्षा सूत्र का काम करेगा और पाण्डवों को सभी विपदाओं से बचाएगा !
उसके बाद पाण्डवों द्वारा राखी का पर्व मनाया गया ! तब द्रौपदी ने श्रीकृष्ण की कलाई में राखी बाँधी और रक्षा का वचन लिया ! एक और प्रसंग है -
श्रीकृष्ण ने जब सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया, तब उनकी तर्जनी उंगली में चोट आ गयी थी ! उस समय द्रौपदी ने अपने सारी के पल्लू से पट्टी फाड़कर श्रीकृष्ण की उंगली में बाँधी थी !
यह श्रावण महीने की पूर्णिमा का दिन था !
श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की सहृदयता का बदला दुर्योधन की महासभा में चीरहरण के समय द्रौपदी की सारी बढ़ाकर चुकाया !
कुछ ऐतिहासिक प्रसंग भी बड़े मशहूर हैं !
राजपूत जब भी किसी युद्ध पर जाते थे तो उनके घर की महिलायें, उन्हें तिलक लगाकर, उनके हाथ में रेशमी धागा बांधती थीं ! यह मान्यता थी कि रेशमी धागा उनकी रक्षा करेगा !
कुछ ऐतिहासिक प्रसंग भी बड़े मशहूर हैं !
राजपूत जब भी किसी युद्ध पर जाते थे तो उनके घर की महिलायें, उन्हें तिलक लगाकर, उनके हाथ में रेशमी धागा बांधती थीं ! यह मान्यता थी कि रेशमी धागा उनकी रक्षा करेगा !
मेवाड़ की रानी कर्मावती का एक प्रसंग है !
बहादुरशाह नाम के आततायी द्वारा मेवाड़ पर आक्रमण करने की जानकारी मिलने पर रानी कर्मावती ने दिल्ली के बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की थी ! तब हुमायूँ ने एक मुसलमान होने के बावजूद मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह को धूल चटाई और मेवाड़ की रक्षा की !
राखी के दिन लड़कियाँ और स्त्रियाँ स्नान आदि के बाद पूजा की थाली तैयार करती हैं ! थाली में रोली चावल, मिठाई तथा भाइयों की कलाई में बाँधा जाने वाला धागा या राखी रखी जाती है ! भाई को टीका कर, माथे पर चावल लगाने के बाद राखी बाँधी जाती है ! फिर भाई का मुँह मीठा करवाया जाता है ! अधिकांशतः बहनें रक्षा बंधन के दिन भाई को राखी बाँधने से पहले कुछ खाती नहीं हैं, इसलिए भाई भी राखी बँधवाने के बाद बहन का मुँह मीठा करवाते हैं !
राखी के दिन बहनें अपने भाई के लिए पक्का खाना तैयार करती हैं ! जिसमे पूरी सब्जी, खीर, हलवा आदि पकवान होते हैं ! राखी बाँधने के बाद भोजन के समय भाई को भोजन करवाया जाता है ! बहुत से परिवारों में विवाहित बहनें राखी बाँधने के लिए भाई के घर जाती हैं ! वहाँ सभी आयोजनों में उनकी भाभी सहायक होती है !
विभिन्न सम्प्रदायों में थोड़े बहुत अन्तर के साथ लगभग इसी तरह राखी का त्यौहार मनाया जाता है ! पर इसके पीछे मूल भावना भाई-बहन का प्यार ही है ! बहन भाई के राखी बांधती है और भाई सभी मुसीबतों से उसकी रक्षा का वचन देता है !