कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी के दिन नरक चौदस का पर्व मनाया जाता है ! इसे छोटी दिवाली भी कहते हैं !
कहा जाता है कि इस दिन सुबह-सुबह सरसों का तेल मलकर अपामार्ग (चिचड़ी) ( अचिरांथिस अस्पेरा' -ACHYRANTHES ASPERA) की पत्तियाँ पानी में डालकर नहाने से पापों से मुक्ति मिलती है !
इसे नरक चौदस कहने के पीछे एक कथा यह है कि इसी दिन भगवान कृष्ण ने नरकासुर नामक क्रूर असुर का वध किया था ! नरकासुर ने इन्द्र, वरुण, अग्निदेव आदि सभी देवताओं को परास्त कर दिया था ! वह राजा- महाराजाओं, साधू-सन्तों तथा धर्मपरायण लोगों को मारने लगा और उनकी पत्नियों तथा पुत्रियों को पकड़-पकड़ कर कारागार में डालने लगा ! उसे स्त्रियों पर भी दया नहीं आती थी ! वह सबको तरह-तरह से तंग करता ! सब पर अत्याचार करता ! सन्तजनों पर उसके अत्याचारों से क्रुद्ध होकर गुरु वशिष्ठ ने उसे शाप दिया कि वह विष्णु भगवान के अवतार द्वारा मारा जाएगा !
किन्तु नरकासुर को वरदान प्राप्त था कि वह पशु-पक्षी, देवता-दानव अथवा किसी भी पुरुष के हाथों नहीं मारा जाएगा ! जब उसका आतंक बहुत बढ़ गया तो बहुत से साधू-सन्त, देवता आदि भगवान श्रीकृष्ण के पास पहुँचे और उनसे नरकासुर को मारकर उसके आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की !
श्रीकृष्ण तो अन्तर्यामी थे ! सब जानते थे ! उन्होंने अपनी प्रिय तथा अद्वितीय सुन्दर रानी सत्यभामा को एक रथ का सारथी बनाया और नरकासुर से युद्ध के लिए निकल पड़े ! नरकासुर भयंकर हुंकार भरता हुआ गदा लिए युद्ध क्षेत्र में आया !
उसने श्रीकृष्ण को मारने के लिए गदा फेंकी, किन्तु विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण उस समय शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण किये हुए थे ! उन्होंने गदा फेंककर नरकासुर की गदा बीच राह में ही चूर-चूर कर दी ! तभी नरकासुर की दृष्टि श्रीकृष्ण की सारथी बनी सत्यभामा पर पड़ी ! वह सत्यभामा को श्रीकृष्ण से छीनने के लिए झपटा ! किन्तु तभी श्रीकृष्ण अपनी माया दिखाई और सत्यभामा के साथ एकाकार हो गए ! सत्यभामा का स्वरूप तुरन्त महालक्ष्मी सदृश लगने लगा ! उसी क्षण सत्यभामा के स्वरूप में रहते हुए श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र चला दिया ! चक्र ने पहले नरकासुर के सिर को धड़ से अलग किया ! फिर उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिये !
नरकासुर की कैद में सोलह हज़ार स्त्रियाँ थीं ! भगवान श्रीकृष्ण ने उन सभी को कारागार से मुक्ति दिलवाई तो वे सभी श्रीकृष्ण के चरणों में गिर पड़ीं ! वे विनती करने लगीं कि श्रीकृष्ण उन्हें अपने चरणों में जगह दे दें, क्योंकि नरकासुर ने उनके सभी प्रियजनों को मार डाला था और उनका संसार में अपना कहने को कोई न था ! श्रीकृष्ण असमंजस में पड़े तो सत्यभामा ने उन्हें समझाया कि आपने इनका उद्धार किया है, इसलिए आप ही इनके स्वामी हुए ! आपको इन्हें अपनी शरण में ले लेना चाहिए !
एक अन्य कथा के अनुसार किसी समय रन्तिदेव नाम का एक राजा था ! वह बहुत दान-पुण्य करता था ! जब उनका अन्तकाल आया तो यमदूत उन्हें नरक में ले जाने के लिए आये ! राजा इतना धर्मपरायण और सदाचारी था कि उसने यमदूतों को देख लिया और पूछा कि तुमलोग मुझे नरक में क्यों ले जाना चाहते हो, मैंने तो कभी कोई पापकर्म नहीं किया !
तब एक यमदूत बोला - यह सत्य है राजन कि तुमने अपने ज्ञान में कोई पापकर्म नहीं किया, किन्तु एक बार तुम्हारे द्वार से एक बहुत भूखा ब्राह्मण खाली हाथ लौट गया था, जिसने बाद में प्राण त्याग दिये ! इसलिए तुम्हें यदि स्वर्ग भी ले जाया जाएगा तो नरक के रास्ते से ही ले जाया जाएगा और नरक की यातनाओं का दुःख भी तुम्हें सहना पड़ेगा !
इस पर राजा रन्तिदेव ने कहा - "यदि मेरे अनगिनत पुण्य - अज्ञानतावश हुए एक छोटे से पाप को नष्ट नहीं करते तो आपलोग मुझे एक वर्ष का समय दें ! मेरी आयु एक वर्ष बढ़ा दें, जिससे मैं अपने स्वरा अज्ञानता में हुए पाप का प्रायश्चित कर सकूं !"
यमदूतों ने राजा को एक वर्ष की मोहलत दे दी ! तब राजा ने विद्वान् ऋषि-मुनियों की शरण में जाकर उन्हें सारी बात बताई और पूछा कि मुझसे अज्ञानतावश हुए इस पाप का प्रायश्चित कैसे हो हो सकता है ! तब ऋषियों ने राजा से कहा कि राजन, आप कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी का व्रत करें ! और नगर के ब्राह्मणों को भोजन कराएवं तथा उन सभी को अज्ञानतावश हुए अपने अपराध के लिए क्षमा मांगे तो आपके समस्त पाप नष्ट हो जाएंगे !
उसके बाद राजा रन्तिदेव ने ऋषियों के कहे अनुसार व्रत किया !
एक वर्ष बाद जब उन्होंने देह का त्याग किया तो उन्हें नरक का मुख नहीं देखना पड़ा और स्वर्ग में सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ !
तभी से पापमुक्ति के लिए और नरक का मुख देखने से बचने के लिए नरक चतुर्दशी के व्रत की परम्परा ने जन्म लिया !
नरक चौदस के दिन भगवान श्रीविष्णु और भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन और उनकी पूजा का भी बड़ा लाभ मिलता है !