श्रीगणेश की पूजा में दूर्वा (दूब) नाम की घास का प्रयोग किया जाता है ! जबकि सभी देवी-देवताओं की प्रिय “तुलसी” - श्रीगणेश पूजन में वर्जित है ! क्यों ? आइये जानते हैं !
श्रीगणेश पूजन में दूर्वा का उपयोग क्यों ?
पुराणों में वर्णित एक कथा है !
किसी समय एक भयंकर राक्षस हुआ था - अनलासुर - जो मुँह से आग की लपटें फेंकता था ! उसके आतंक से पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, ऋषि-मुनि, मनुष्य और देवता सभी बेहद त्रस्त हो गए !
तब बहुत से ऋषि-मुनि और देवगण भगवान् भोलेनाथ शिव जी के पास पहुँचे और बोले - "हे नाथ ! हमें दुष्ट अनलासुर से बचाइए !"
भोले भण्डारी शिव बोले - "सज्जनों ! अनलासुर को सहज ही नहीं मारा जा सकता ! किसी हथियार से उसे काटा या नष्ट नहीं किया जा सकता ! उसकी तो देह भी अग्नि की है और अग्नि ही फेंकता है वह ! उसका अन्त करने के लिए तो किसी ना किसी को उसे निगलना ही पड़ेगा ! और मैंने तो पहले ही विषपान कर रखा है ! जिसकी अग्नि से स्वयं को शीतल रखने के लिए देवी गंगा को अपनी जटाओं में समेत रखा है और शीतल चन्द्र को अपने मस्तक पर शोभित कर रखा है ! मैं तो यह कार्य कदापि नहीं कर सकता !" (इस ब्रह्माण्ड में अनगिनत चन्द्रमा हैं - सभी चन्द्र - चन्द्रदेवता के गण हैं ! उन्हीं में से एक अति शीतल चन्द्र भगवान् शिव के मस्तक पर शोभायमान है !)
ऋषि-मुनि और देवगण बिलखने लगे -"हे नाथ, आप तो सर्वज्ञ हैं ! यदि आपके द्वारा उसका नाश सम्भव नहीं है तो कैसे होगा उसका नाश यह तो आप ही हमें बताइये !"
शिवजी बोले -"लम्बोदर-महोदर श्रीगणेश के अतिरिक्त अनलासुर को पचाने की शक्ति भला और किस में होगी ? आप लोग समय नष्ट ना करें ! तत्काल श्रीगणेश की आराधना कीजिये !"
सभी ऋषि-मुनि, देवगण लम्बोदर श्रीगजानन गणेश की पूजा में लग गए ! असंख्य लोगों की पुकार सुनकर दयामय श्रीगणेश प्रकट हुए तो सभी ने उनसे अनलासुर के नाश की प्रार्थना की !
मंगलमूर्ति महाप्रभु श्रीगणेश तत्काल ही उस स्थान पर पहुँच गए, जहां अनलासुर उत्पात मचा रहा था !
अपना विशाल रूप धारण कर लम्बोदर श्रीगणेश ने अपना मुँह खोलकर एक लम्बी साँस जो खींची तो अनलासुर उनके मुँह के रास्ते से, उनके उदर (पेट) में समा गया ! उसके बाद महाप्रभु ने फिर से सामान्य रूप धारण कर लिया !
श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल तो लिया, किन्तु अग्निमय अनलासुर को निगलने से उनके पेट में भयंकर जलन होने लगी ! ऋषि-मुनियों तथा देवताओं ने महाप्रभु श्रीगणेश के उदर की जलन मिटाने के लिए अनेक उपचार किये, किन्तु श्रीगणेश के उदर की जलन शान्त नहीं हुई !
तब कश्यप ऋषि ने दूर्वा घास की इक्कीस गाँठें बनाकर श्रीगणेश को खाने को दीं, जिसे खाते ही श्रीगणेश के उदर की जलन पूरी तरह शान्त हो गयी ! श्रीगणेश अति प्रसन्न हुए और बोले - "जो भी भक्त मेरी पूजा करते हुए इस तरह मुझ पर दूर्वा चढ़ाएगा, वह सदैव मेरी विशेष कृपा का पात्र होगा !"
तब से ही श्रीगणेश की पूजा में 21 दूर्वा जड़ों सहित उखाड़ कर, उन्हें स्वच्छ जल से साफ़ कर, मौली (कलावा) से बाँध कर श्रीगणेश पूजन के समय, पूजा के थाल में रखा जाता है और पूजा करते हुए दूर्वा का प्रयोग किया जाता है !