प्राचीन काल के विद्वानों ने हमारे समाज को चार वर्गों में बाँटा था! क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र!यह वर्गीकरण उस समय लोगों के काम के हिसाब से किया गया था!
उन दिनों शिक्षा का साधन केवल गुरुकुल या ऋषि-मुनियों के आश्रम थे, जहां सम्मानित कुल के लोग शिक्षा ग्रहण करने आते थे ! लोगों का सामाजिक स्तर जो होता था, लगभग वही रहता था ! इसका कारण हर व्यक्ति का अपने पिता और पूर्वजों के काम में ही जीवन यापन करना था अर्थात सैनिक का पुत्र सैनिक होता था ! व्यापारी का पुत्र व्यापारी होता था !
पठन-पाठन और पूजा-अर्चना का कार्य करने वालों के पुत्र यही कार्य करते थे!
हाथ से किये जाने वाले कार्य करने वालों के पुत्र और नाच-गान करके लोगों का मनोरंजन करने वालों के पुत्र-पुत्री यही कार्य करते थे !
जो लोग अस्त्र-शस्त्र विद्या में निपुण होते थे और लड़ाई-युद्ध आदि में भाग लेते थे ! योद्धा कहलाते थे ! उन्हें क्षत्रिय कहा जाता था !
जो पठन-पाठन, पूजा-अर्चना का कार्य करते थे, वे पण्डित अथवा ब्राह्मण कहलाते थे !
लेन-देन का कार्य करने वाले, लोगों की जरूरतों का सामान उन्हें उपलब्ध करवाने वाले, सामान की खरीद-फरोख्त (बिक्री ) के लिए एक नगर से दूसरे नगर भ्रमण करने वाले व्यापारी होते थे ! उन दिनों जब रुपया-पैसा नहीं होता था, सामान का आदान-प्रदान कर व्यापार किया जाता था !
और लोगों के घर के कार्य करने वाले नौकर तथा किसी भी तरह के हाथ के कारीगर अथवा अपनी शारीरिक क्षमताओं से रोजी-रोटी कमाने वाले शूद्र कहलाते थे !
प्राचीन विद्वानों ने समाज का वर्गीकरण चार भागों में जातियों के रूप में नहीं किया था, किन्तु सम्भवतः सतयुग के राजा हरिश्चन्द्र से पहले ही यह वर्गीकरण जातियों में बदल गया ! सोचकर देखिये, जाति के हिसाब से ऐसे वर्गीकरण की जरूरत ही नहीं थी !
यदि प्राचीन विद्वानों ने जाति के हिसाब से वर्गीकरण किया होता तो समाज का केवल चार भागों में वर्गीकरण नहीं होता ! तब सफाई कर्मचारियों, कपड़े धोने वाले, सब्जी बेचने वाले, सोना चांदी बेचने वालों, आटा-गेंहू-चावल आदि बेचने वालों, कपड़ा बेचने वालों, खेती करने वालों, खेल तमाशा दिखाने वालों, नृत्य-अभिनय करने वालों, गाना गाने वालों, वेश्यावृत्ति करने वालियों, पहलवानी करने वालों और युद्ध लड़ने वालों, पूजा-अर्चना करने वालों, शिक्षा दान करने वालों, सभी के लिए अलग-अलग वर्गीकरण होता !
किन्तु समाज का वर्गीकरण जातिगत वर्गीकरण में बदलने के कारण पूजा-अर्चना के कार्यों के लिए हिन्दू समाज को पण्डितों और ब्राह्मणों पर निर्भर रहना पड़ता है ! यह परेशानी उस समय भी होती है, जब शादियों का सीजन होता है और किसी एक दिन बहुत सारी शादियाँ पड़ जाती हैं ! उस समय यदि शादी कराने वाले एक पण्डित ने दक्षिणा के लालच में एक साथ कई-कई शादियाँ कराने का जिम्मा ले रखा हो और तथा अलग-अलग परिवारों को अलग-अलग समय दे रखा हो, किन्तु हर शादी में समय के अनुसार काम नहीं हो पाते तो या तो पण्डित की परेशानी बढ़ जाती है या उन परिवारों में से, किन्हीं परिवारों की, जिनके यहाँ पण्डित ने शादी करानी हो ! किन्तु शादियाँ अब कोर्ट में भी होने लगी हैं ! आर्य समाज मन्दिरों में भी कराई जाती हैं ! और शादी के सीजन में शादी हर परिवार में हो, ऐसा तो सम्भव ही नहीं है, किन्तु पितरों का श्राद्ध तो सभी हिन्दू परिवारों में किया जाता है !
यदि किसी विद्वान् पण्डित से पूछेंगे तो वह यही बताएगा कि श्राद्ध में ब्राह्मण-पण्डित को भोजन करवाना अनिवार्य है, बल्कि कई पण्डित तो श्राद्ध में श्रद्धा के अनुसार से अधिक से अधिक ब्राह्मणों को भोजन करवाने पर जोर देते हैं ! कई पण्डितों का कहना यह होता है कि यदि आप ब्राह्मण को भोजन नहीं करवाते तो आपका श्राद्ध पितरों को नहीं लगता ! आपके द्वारा किये गए श्राद्ध से पितरों की तृप्ति नहीं होती, पितर खुश नहीं होते !
पर आज के समय में पण्डिताई भी बेहद व्यस्तता भरा कार्य हो गया है ! हमारे एक परिचित धर्मसिंह के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्होंने कसम खा ली कि अब से श्राद्ध में किसी पण्डित को नहीं बुलायेंगे, किसी अनाथ आश्रम में या ब्लाइंड स्कूल में जाकर पितरों के नाम से मनसा हुआ सामान दे आएंगे और भोजन खिला आयेंगे !
दरअसल धर्मसिंह पहले कोलकता में रहते थे ! वहाँ काफी साल से रह रहे थे ! बहुत से लोगों से अच्छी जान-पहचान थी ! वहाँ पास के मन्दिर के पण्डित जी से अच्छी दोस्ती थी, कभी पण्डित जी की वजह से कोई समस्या पैदा ही नहीं हुई ! पर दिल्ली में पिताजी का श्राद्ध करने के लिए धर्मसिंह को बहुत परेशान होना पड़ा !
पड़ोस के साधुराम जी ने इन्द्रपुरी के एक पण्डित जी के बारे में बताया ! जनकपुरी रहने वाले धर्मसिंह ने इन्द्रपुरी के पण्डित जी से कॉन्टेक्ट किया तो पहले तो अँगुलियों पर गिनते रहे कि श्राद्ध वाले दिन कहाँ-कहाँ जाना है ! फिर बहुत सोचकर बोले कि ठीक है ! ठीक साढ़े आठ बजे सुबह मैं आपके यहां पहुँच जाऊँगा ! किन्तु आपलोग सब तैयारी पहले से रखियेगा ! मैं ठीक नौ बजे आप के यहाँ से चल दूँगा !
और तैयारी में क्या-क्या तैयार रखना है, यह भी बता दिया ! साथ ही बड़े प्रेम से यह भी कह दिया कि देखिये हम इतनी दूर से आपके यहाँ पहुँचेंगे तो ऑटो का भाड़ा भी काफी बैठ जाएगा ! तो हमारा ख्याल भी ठीक से रखियेगा ! कल राजेन्द्र नगर में गुप्ता जी के यहाँ गए थे, वो दक्षिणा में इक्कीस सौ रूपये दिए तो हमें ऑटो का किराया अलग से माँगने की जरूरत ही नहीं पड़ी ! धर्मसिंह ने पण्डित जी को आश्वस्त किया कि वह निश्चिन्त रहें ! श्राद्ध के दिन धर्मसिंह के यहाँ सात बजे तक ही सारी तैयारी हो गयी थी ! फिर पण्डित जी का इन्तज़ार किया जाने लगा !
जब आठ बज गए तो धर्मसिंह ने पण्डित जी को याद दिलाने के लिए फोन किया तो पहले तो काफी देर घण्टी बजती रही ! फिर पण्डित जी की आवाज़ आई -"अभी दस मिनट बाद फोन कीजियेगा ! अभी हम पूजा में हैं !"
दस मिनट बाद फोन किया ! घण्टी तब भी थोड़ी देर बजती रही ! फिर फोन उठाते ही पण्डित जी की आवाज़ आई -"मित्तल साहब, बस आपके यहाँ ही पहुँच रहे हैं !"
"पण्डित जी मैं मित्तल साहब नहीं धर्मसिंह बोल रहा हूँ, जनकपुरी से !" धर्मसिंह ने कहा !
"अच्छा…! हाँ, धर्मसिंह जी नमस्कार ! हम अभी राजेन्द्र नगर अग्रवाल साहब के यहाँ से निकले हैं ! पटेलनगर में मित्तल साहब के यहाँ होकर आपके यहाँ पहुँचते हैं !" पण्डित जी ने कहा !
"पण्डित जी ! सवा आठ बज चुके हैं !" धर्मसिंह बोले !
"कोई बात नहीं, टाइम थोड़ा ऊपर-नीचे हो जाएगा ! पर हम पहुँच जाएंगे ! आप निश्चिन्त रहिये !" पंडितजी ने कहा और फोन काट दिया ! उसके बाद धर्मसिंह बार-बार फोन करते रहे, पर पहले तो कई बार घण्टी बजती रही ! फिर स्विच ऑफ का मैसेज आने लगा !
पण्डित जी नहीं आये ! समय साढ़े दस से ऊपर हो गया ! तब घर की औरतों ने कहा कि मनसा हुआ सामान और श्राद्ध की थाली लेकर पास के मन्दिर में जाकर श्राद्ध कर्म पूर्ण करवा लिया जाए ! धर्मसिंह मन्दिर गए ! वहाँ पहले से ही कई व्यक्ति खड़े थे ! धर्मसिंह उनके पीछे खड़े हो गए ! उनका सातवाँ नम्बर था ! नम्बर आया ! पण्डित जी ने पहले गाय, कौवे, कुत्ते और चींटी के लिए लाये गए भोजन को मन्त्र पढ़कर अलग किया ! फिर पिताजी के लिए निकाली गयी थाली और सामान के गिर्द भी पण्डित जी ने मन्त्र पढ़े और सारे श्राद्ध कर्म करने के बाद भोजन की थाली में से पूरियां उठाईं और पीछे एक तरफ रखे पाँच बड़े-बड़े बर्तनों में से एक में पूरियां डाल दीं ! धर्मसिंह ने देखा था उससे पहले के लोगों की पूरियां भी उसी बर्तन में डाली गयीं थीं ! फिर धर्मसिंह की थाली में से हलवा उठा कर एक बर्तन में डाल दिया गया, जिसमे पहले श्राद्ध करवाने आये लोगों का हलवा डाला गया था ! एक बड़ा बर्तन खीर का भी था ! खीर उसमे डाल दी गयी ! सब्जियों के दो बड़े बर्तन थे ! सब्जियाँ उन में डाल दी गयी ! रुपये तथा सामान पण्डित जी ने एक तरफ रख लिया और थाली व कटोरियाँ खाली कर के धर्मसिंह को पकड़ा दीं !
श्राद्ध तो सम्पन्न हो गया, किन्तु धर्मसिंह को तसल्ली नहीं मिली ! अगले साल से धर्मसिंह खुद ही घर पर श्राद्ध करने लगा ! श्राद्ध के भोजन में वह और अधिक भोजन मिलाकर अनाथ और गरीब बच्चों को खाना खिलाने लगा ! पिताजी के नाम से निकाले गए कपड़े भी वह किसी जरूरतमन्द को दे देते हैं !
मित्रों, श्राद्ध सभी हिन्दू घरों में अत्यावश्यक माना जाता है ! श्राद्ध में पण्डितों की भूमिका भी अत्यावश्यक है! किन्तु कभी-कभी आप ऐसी जगह रह रहे होते हैं, जहाँ निकट कोई मन्दिर नहीं होता और कोई ब्राह्मण आपको आपके अनुरूप नहीं मिलता, तब आप क्या करेंगे ! तब आप स्वयं कुछ समय के लिए ब्राह्मण बन जाइये और श्राद्ध कर्म पूर्ण कीजिये ! कैसे ? यह हम आपको बताते हैं !
दोनों हाथों की सबसे छोटी अंगुली के बगल वाली अंगुली (अनामिका) में कुश लपेटकर दोनों हाथ जोड़ें और पितरों का आह्वान करते हुए यह मन्त्र पढ़ें –
'ॐ आगच्छन्तु मे पितर एवं ग्रहणन्तु जलान्जलिम !
“Om Aagachchhantu Me Pitar Evam Grahanantu Jalaanjalim.”
फिर दायें हाथ की अंजुली में कुछ तिल के दाने और जल लेकर मन्त्र पढ़ें ! मन्त्र पढ़ने के बाद पितरों के लिए मनसे गए सामान के चारों तरफ अंजुली घुमा कर जल को अंगूठे की तरफ से जमीन पर गिरा दें ! ऐसा तीन बार करें !
पिता और माता तथा दादा-दादी के श्राद्ध के मन्त्र में बहुत मामूली सा अन्तर होता है, एक बार समझ में आने के बाद मन्त्र पढ़ना आसान हो जाता है !
पिता के श्राद्ध में पढ़ा जाने वाला मन्त्र –
(अपना) गोत्रः अस्मत्पिता (पिता का नाम) देव वसुरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः ।
माता के श्राद्ध में पढ़ा जाने वाला मन्त्र –
(अपना) गोत्रः अस्मन्माता (माता का नाम) देवी वसुरूपा तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः, तस्यै स्वधा नमः ।
बहुत से पण्डित पिता का श्राद्ध पढ़ते समय देव के स्थान पर शर्मा पढ़ते हैं, किन्तु मुझे यह शुद्ध नहीं लगता ! शर्मा लिखे जाने से पिता के श्राद्ध का मन्त्र इस प्रकार बनता है !
(अपना) गोत्रः अस्मत्पिता (पिता का नाम) शर्मा वसुरूपस्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः ।
मेरा नाम योगेश है गोत्र मित्तल है ! पिता का नाम चन्द्रप्रकाश तथा माता का नाम उर्मिला !
अब मैं आपको मन्त्र में अपने गोत्र तथा पिता और माता के नाम सम्मिलित करके मन्त्र प्रस्तुत कर रहा हूँ !
आप भी वैसे ही मन्त्र पढ़ सकते हैं !
पिता के श्राद्ध में :-
मित्तल गोत्रः अस्मत्पिता चन्द्रप्रकाश देव वसुरूप स्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
Mittal Gotrah Asmatpita Chandraprakash Dev Vasuroop strapyataamidam Tilodakam Gangaajalamvaa Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah
माता के श्राद्ध में मैं इस प्रकार मन्त्र पढूँगा –
मित्तल गोत्रः अस्मन्माताउर्मिला देवी वसुरूपा स्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
Mittal Gotrah Asmanmata Urmila Devi Vasuroopaa strapyataamidam Tilodakam Gangaajalamvaa Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah
यदि हम गंगा जल के स्थान पर किसी और नदी के जल से जलान्जलियां दे रहे हैं तो उसी नदी का नाम लेकर जलान्जली देंगे ! उदाहरण के तौर पर यमुना नदी का जल है तो……
मित्तल गोत्रः अस्मत्पिता चन्द्रप्रकाश देव वसुरूप स्तृप्यतामिदं तिलोदकं यमुनाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
मित्तल गोत्रः अस्मन्माता उर्मिला देवी वसुरूपा स्तृप्यतामिदं तिलोदकं यमुनाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
ध्यान रहे कि हमने जलान्जली के लिए जल पावन नदियों का और पावन स्थल से ही लेना है ! किन्तु यदि हमारे पास किसी नदी का पावन जल नहीं है और हमें सरकारी नल का जल प्रयोग में लाना पड़ रहा है तो हम स्वच्छ जल का प्रयोग कर केवल पावनजलं कह कर काम चला सकते हैं! उदाहरण के तौर पर……
मित्तल गोत्रः अस्मत्पिता चन्द्रप्रकाश देव वसुरूप स्तृप्यतामिदं तिलोदकं पावनजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः ।
मित्तल गोत्रः अस्मन्माता उर्मिला देवी वसुरूपा स्तृप्यतामिदं तिलोदकं पावनजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
यदि हमें दादा का श्राद्ध करना हो तो हम पिता के स्थान पर पितामह बोलेंगे और दादा का नाम लेंगे !
माता-पिता के श्राद्ध देवता "वसु" होते हैं, किन्तु दादा-दादी के "रूद्र" और परदादा-परदादी के "आदित्य" !
दादा-दादी का नाम - माधवप्रसाद और प्रेमवती तथा परदादा-परदादी का नाम ज्वालाप्रसाद और विद्यारानी होने पर उनके श्राद्ध के मन्त्र इस प्रकार पढ़े जाएंगे !
दादा के श्राद्ध में पढ़ा जाने वाला मन्त्र –
मित्तल गोत्रः अस्मत्पितामह माधवप्रसाद देव रूद्ररूप स्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
Mittal Gotrah AsmatPitamah Madhavprasad Dev Rudraroop strapyataamidam Tilodakam Gangaajalamvaa Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah
दादी के श्राद्ध में पढ़ा जाने वाला मन्त्र –
मित्तल गोत्रः अस्मन्मातामह प्रेमवती देवी रूद्ररूपा स्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
Mittal Gotrah AsmanMatamah Premvati Devi Rudraroopaa strapyataamidam Tilodakam Gangaajalamvaa Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah
परदादा के श्राद्ध में पढ़ा जाने वाला मन्त्र –
मित्तल गोत्रः अस्मतपरपितामह ज्वालाप्रसाद देव आदित्यरूप स्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
Mittal Gotrah AsmatParpitamah Jwalaprasaad Dev Aadityroop strapyataamidam Tilodakam Gangaajalamvaa Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah
परदादी के श्राद्ध में पढ़ा जाने वाला मन्त्र –
मित्तल गोत्रः अस्मनपरमातामह विद्यारानी देवी आदित्यरूपा स्तृप्यतामिदं तिलोदकं गंगाजलं वा तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः, तस्मै स्वधा नमः !
Mittal Gotrah AsmanParmatamah Vidyarani Devi Aadiityroopaa strapyataamidam Tilodakam Gangaajalamvaa Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah, Tasmai Swadha Namah
अन्त में - इस लेख का आरम्भ मैंने समाज के वर्गीकरण के बारे में बताने से क्यों किया है, यह भी बता दूं ! कारण सिर्फ यह है कि आप अपने मन में यह भरोसा पैदा कर सकें कि यदि आपको श्राद्ध कर्म के लिए कोई पण्डित या ब्राह्मण नहीं मिलता तो आप स्वयं भी श्राद्ध कर सकते हैं ! आप अपने पूर्वजों के लिए, अपने पितरों के लिए स्वयं ब्राह्मण बन सकते हैं !
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