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श्राद्ध

हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से आश्विन की अमावस तक के सोलह दिन हर वर्ष पितरों के दिन होते हैं ! हमारे परिवार के जो लोग परलोक सिधार जाते हैं ! कहते हैं उनकी आत्माएँ यदि मोक्ष नहीं मिलता या पुनर्जन्म नहीं होता तो बरसों अतृप्त भटकती-तड़पती रहती हैं ! श्राद्ध के सोलह दिनों में वे सभी आत्माएँ अन्तरिक्ष के कोने-कोने से पृथ्वी पर अपने निकट सम्बन्धियों को देखने आती हैं ! इसलिए श्राद्ध के सोलह दिन पितरों के धरती पर लौट आने के दिन अथवा पितरों की जागृति के दिन कहलाते हैं ! श्राद्ध अपने से पहले की तीन पीढ़ियों तक का किया जाता है ! हमारे पूर्वजों में पिता के लिए वसु,दादा-दादी के लिए रूद्र तथा परदादा-परदादी के लिए आदित्य, पितर देवता माने जाते हैं ! बहुत से लोग माता-पिता का ही श्राद्ध करते हैं ! उन्हीं के श्राद्ध में अपने सभी पितरों को श्रद्धांजलि दे कर श्राद्ध कर दिया करते हैं ! बहुत से लोग तीन पीढ़ियों के पूर्वजों का श्राद्ध करते हैं तथा उनसे पहले के पूर्वजों को भी नमन कर, भूल-चूक की क्षमा माँग लेते हैं !

श्राद्ध के दिन का निर्णय व्यक्ति की मृत्यु की तिथि से किया जाता है ! यदि किसी की मृत्यु पूर्णिमा के दिन हुई है तो उसका श्राद्ध पहले ही दिन अर्थात भाद्रपद शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को किया जाता है ! अमावस्या के दिन मरने वाले का श्राद्ध अन्तिम श्राद्ध दिवस अर्थात अमावस्या को किया जाता है ! इसी प्रकार अन्य किसी भी तिथि को परलोक सिधारे व्यक्ति का आश्विन माह की उसी तिथि को श्राद्ध किया जाता है ! किन्तु किसी वजह से आप व्यक्ति की मृत्यु की तिथि भूल गए अथवा श्राद्ध के दिनों वह तिथि किसी कारणवश निकल गयी और आपने श्राद्ध नहीं किया तो घबराइये नहीं, श्राद्ध का आख़िरी दिन अर्थात आश्विन की अमावस का दिन सबके लिए होता है ! किसी भी तिथि को परलोकगामी हुए व्यक्ति का श्राद्ध अमावस के दिन किया जा सकता है !

बहुत से लोग अपने परिवार के सभी सदस्यों का श्राद्ध एक ही दिन अर्थात अमावस्या के दिन कर देते हैं ! कुछ एक पण्डितगण निजी स्वार्थों के कारण अपने किसी यजमान को भ्रमित कर सकते हैं, किन्तु अधिकाँश बड़े पण्डित इसमें कोई दोष नहीं मानते ! मन में श्रद्धा होनी चाहिए ! श्राद्ध श्रद्धा के साथ किया जाना चाहिए ! आप अपने माता-पिता, दादा-दादी, परदादा- परदादी सभी के नाम से अमावस्या के दिन थाली निकाल सकते हैं ! उनके नाम से अलग-अलग दान कर सकते हैं! बहुत से परिवारों में चाचा-चाची का भी श्राद्ध किया जाता है ! विशेष रूप से संयुक्त परिवारों में ताऊ-ताई, चाचा-चाची का श्राद्ध भी मिलकर किये जाने की परम्परा है ! यदि परिवार संयुक्त न हो और आपके चाचा-चाची, अथवा ताऊ-ताई निःसंतान रहे हों, तो भी आप उनका श्राद्ध कर सकते हैं ! पिता का श्राद्ध पुत्र ही करता है, किन्तु पुत्र ना हो तो पत्नी भी अपने पति का श्राद्ध कर सकती है ! यदि पत्नी भी नहीं है तो भाई भी भाई का श्राद्ध कर सकता है !

मृत व्यक्ति के एक से अधिक पुत्र हों और संयुक्त परिवार में रहते हों तो बड़े बेटे को ही श्राद्ध करना चाहिए, किन्तु सभी छोटे भाइयों को श्राद्ध में सम्मिलित होकर पितरों को अर्पण किये जाने वाले भोज्य अथवा दान-पदार्थ को हाथ लगाना और पितरों को नमन अवश्य करना चाहिए ! पर यदि सभी भाई अलग-अलग रहते हों तो सभी अलग-अलग श्राद्ध कर सकते हैं !

श्राद्ध में हो सके तो पितरों को रोज जल अवश्य चढ़ाएँ ! श्राद्ध मे बनाये जाने वाले पकवान पितरों की पसन्द के होने चाहिए ! जौ, मटर, सरसों, तिल, कुश, शहद, दूध और गंगाजल श्राद्ध में आवश्यक हैं ! तिल का उपयोग बेहद जरूरी है !

कुछ लोग कहते हैं कि हम जो पितरों के लिए थाली निकालते हैं, उसके भोज्य पदार्थ हमारे पूर्वजों तक कैसे पहुँच सकते हैं ! इस बारे में कहा जाता है कि आप जो भोजन अपने पूर्वज (माता-पिता, दादा-दादी अथवा अन्य किसी) के लिए निकालते हैं, वह सब आपके पितरों को पहुंचते हैं ! जिन पितरों ने किसी भी योनि में जन्म नहीं लिया होता है, वह आपके दिए भोज का अर्क भोजन के रूप में स्वयं प्राप्त कर लेते हैं ! आपके जो पूर्वज देवयोनि में जा चुके होते हैं, उन्हें भोजन अमृत के रूप में परिवर्तित होकर मिलता है ! जो पूर्वज मनुष्य योनि में जन्म ले चुके होते हैं, उन्हें वह सब मनुष्यों के भोजन के रूप मी मिलता है ! आपके द्वारा श्राद्ध करने का उन्हें सबसे बड़ा फायदा यह पहुँचता है कि यदि वह किसी कारणवश गरीब और मोहताज घर में जन्म लेकर दुःख भरा जीवन काट रहे होते हैं तो आपके द्वारा श्रद्धापूर्वक किये श्राद्ध से उन्हें पूरे साल भर भोजन की कमी नहीं रहती ! उन्हें किसी न किसी रूप में आर्थिक लाभ उपलब्ध होते रहते हैं ! किन्तु आप श्राद्ध करना भूल गए तो उनका दुःख भरा जीवन और अधिक कष्टप्रद हो जाता है ! यदि आपके पूर्वज ने किसी जीव-जन्तु या पशु-पक्षी के रूप में जन्म लिया होता है तो उन्हें उसी जीव के अनुरूप भोजन मिलता रहता है ! आपका उनके नाम से निकाला गया भोजन कोई भी खाये, उससे तृप्ति पितरों की ही होती है ! जिन पितरों की आत्मा कोई जन्म अथवा मोक्ष ना मिलने के कारण भटक रही होती है, वर्ष के इन्हीं सोलह दिनों में वह धरती पर आ पाती है, बाकी पूरे साल वह शून्य में वहां भटकती रहती है, जहां न बादल होते हैं न पानी ! इसलिए पितर प्यासे होते हैं ! पितरों को जल तर्पण करने से वे बहुत प्रसन्न होते हैं ! हमारे हाथ में चार अँगुलियाँ होती हैं ! अँगूठे के साथ वाली अँगुली तर्जनी कहलाती है, उसके साथ की मध्यमा, फिर तीसरी अँगुली अनामिका तथा सबसे छोटी अँगुली कनिष्ठा कहलाती है ! हमें अनामिका में कुश (घास) लपेट कर दायें हाथ की अंजुलि में जल लेकर अँगूठे को नीचा कर अँगूठे की तरफ से पितरों के लिए धीरे-धीरे गिराना चाहिए ! अँगूठे के ओर से गिराया जल पितरों को मिलता है ! जबकि अँगुलियों की ओर से गिराया जल सीधा देवताओं को जाता है, वह जल पितरों को नहीं मिलता ! पितर प्यासे रह जाते हैं ! क्योंकि अँगुलियों से गिराया जल देवता पी जाते हैं !

बताया जाता है - पितरों के लिए प्रस्तुत खाद्य सामग्री में तिल का होना अनिवार्य है ! तिल पिशाचों को दूर रखता है ! तिल न होने से पितरों के लिए निकाली गयी सामग्री पिशाच खा जाते हैं ! तिल अलग से रखना जरूरी नहीं है ! पितरों के लिए निकाली गयी थाली के किसी भी पदार्थ में कुछ एक दाने तिल के डाले जा सकते हैं ! पितरों की पूजा में रोली चावल का प्रयोग न करें ! पितरों पर चन्दन चढ़ाया जा सकता है ! चन्दन टीका भी लगाया जा सकता है !

श्राद्ध में कुशा (एक प्रकार की घास ) से श्राद्ध पर बुरी आत्माओं अथवा राक्षसों की दृष्टि नहीं पड़ती ! तुलसी के पत्तों का प्रयोग करने से पितर प्रसन्न होते हैं ! श्राद्ध किसी दूसरे के घर में कभी नहीं करना चाहिए ! यदि आप किसी के साथ उसके घर में रह रहे हैं तो श्राद्ध किराए पर अलग जगह लेकर करें !

श्राद्ध में गाय, कौवे, कुत्ते और चींटी के नाम का भोजन निकालने के बाद पितर देवताओं को भोजन अर्पण करने के बाद ब्राह्मण को भोजन करायें ! श्राद्ध का भोजन किसी को भी सदा दोनों हाथों से परोस कर खिलायें ! एक हाथ से परोसने पर भोजन पितरों को नहीं लगता ! वह राक्षस तथा बुरी आत्माएँ खा जाती हैं !

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