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पिंजरे का तोता

एक समय की बात हैं, एक सेठ और सेठानी रोज सत्संग में जाते थे !

सेठजी के घर एक पिंजरे में तोता पाला हुआ था !

तोता रोज सेठ-सेठानी को बाहर जाते देख, एक दिन पूछता है कि सेठजी आप रोज कहाँ जाते हैं ? सेठजी बोले कि भाई सत्संग में ज्ञान सुनने जाते हैं । तोता कहता है सेठजी फिर तो कोई ज्ञान की बात मुझे भी बताओ। तब सेठजी कहते हैं की ज्ञान भी कोई घर बैठे मिलता है । इसके लिए तो सत्संग में जाना पड़ता है !

तोता कहता है –“ कोई बात नही सेठजी ! आप मेरा एक काम करना ! सत्संग जाओ तब संत महात्मा से एक बात पूछना कि मैं आजाद कब होऊँगा ! सेठ जी हँसे ! पर तोते का मन रखने के लिए बोले -"ठीक है, पूछ कर आऊँगा !"

पर मन ही मन वह सोच रहे थे - "बेटा, तुझे मैं कहाँ आज़ाद करने वाला हूँ ! तुझ जैसे इन्सानों की तरह बोलने वाले तोते को पाँच सौ रुपये देकर खरीदा था बहेलिये से !"

सेठजी सत्संग ख़त्म होने के बाद संत से पूछ ही लेते हैं कि महाराज हमारे घर जो तोता है, उसने पूछा है कि वो आजाद कब होगा ?

सेठ जी की बात सुनकर संत को न जाने क्या हुआ कि वह एक आह भरते हुए बेहोश होकर गिर गए !

सेठजी संत की हालत देख कर चुप-चाप वहाँ से निकल गए !

घर आते ही तोता सेठजी से पूछता है कि सेठजी संत जी ने क्या कहा !

सेठजी कहते है की तेरे किस्मत ही खराब है ! जो तेरी आजादी का सवाल पूछते ही संत जी बेहोश हो गए।

"क्या ?" तोते ने कहा और अगले ही पल उसने उदास होकर मुँह घुमा लिया !

दूसरे दिन सेठजी सत्संग में जाने लगे तो देखा कि सुबह तोते के पिंजरे में डाला गया दाना ज्यों का त्यों पड़ा है और तोता पिंजरे में ढेर होकर निश्चल पड़ा है !

"अरे, क्या हुआ इसे ?" सेठ जी लपक कर पिंजरे के निकट आये ! पिंजरे का द्वार खोलते हुए बुदबुदाए - "यह तो मर गया !"

सेठजी उसे मरा हुआ मानकर जैसे हीं उसे पिंजरे से बाहर निकालते है तो वो उड़ जाता है !

सत्संग जाते ही संत सेठजी को पूछते है कि कल आप उस तोते के बारे में पूछ रहे थे ना अब वो कहाँ है ! सेठजी कहते हैं, हाँ महाराज आज सुबह-सुबह वो जानबुझ कर बेहोश हो गया ! मुझे लगा कि वह मर गया है, इसलिये मैंने उसे जैसे ही बाहर निकाला तो वह उड़ गया !

तब संत ने सेठजी से कहा कि देखो तुम इतने समय से सत्संग सुनकर भी आज तक सांसारिक मोह-माया के पिंजरे में फंसे हुए हो और उस तोते को देखो बिना सत्संग में आये मेरा एक इशारा समझ कर आजाद हो गया !

इस कहानी से तात्पर्य ये है कि हम सत्संग में तो जाते हैं ! ज्ञान की बाते करते हैं या सुनते भी हैं, पर हमारा मन हमेशा सांसारिक बातों में हीं उलझा रहता है !

सत्संग में भी हम सिर्फ उन बातों को पसंद करते हैं , जिनमें हमारा स्वार्थ सिद्ध होता है! हमे वहां भी मान यश मिल जाये यही सोचते रहते हैं ! जबकि सत्संग जाकर हमें सत्य को स्वीकार कर, सभी बातों को महत्व देना चाहिये और जिस असत्य, झूठ और अहंकार को हम धारण किये हुए हैं, उसे साहस के साथ मन से उतार कर सत्य को स्वीकार करना चाहिए !

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